केरल के एक अच्छे और सम्पूर्ण परिवार में जन्मी सुधा वर्गीस अपने जीवन के शुरूआती समय में ही लोगों की मदद में जुट गयी थीं. वो The Sisters of Notre Dame संस्थान के साथ काम करती थीं.
इस संस्था ने 1965 में बिहार के एक कॉन्वेंट स्कूल में सुधा को भेजा. इससे पहले सुधा न तो बिहार गयी थीं और न ही उन्होंने कभी गरीबी और भेदभाव को देखा था.
हालांकि, बिहार पहुँचते ही उन्हें यह सब दिखा!
जिस जगह पर उनका स्कूल था, वहां पर काफी गरीब लोग रहते थे. सुधा और उनके जैसी बाकी कैथोलिक नन उन गरीबों की मदद किया करती थीं.
इसी बीच सुधा को ‘मुसहर जाति’ के बारे में पता चला, जिन्हें बिहार में महादलित भी कहा जाता है. उन्हें ज्ञात हुआ कि मुसहर लोग, आम गरीबों से भी ज्यादा गरीब हैं!
इसके बाद उन्होंने इस गरीबी और लाचारी को खत्म करने का एक तरीका सोचा.
उन्हें ये समझ आ गया था कि अगर गरीबों की ठीक से मदद करनी है, तो पहले उनके साथ रहकर उनकी परेशानी समझनी पड़ेगी.
इसके बाद उन्होंने अपना सामान बाँधा और जमसौत गाँव, पटना की ओर निकल गयीं. यह मुसहर जाति का ही गाँव था.